भीतर घात से जूझ रही भाजपा के सामने अपनों से ही निपटने की है सबसे बड़ी चुनौती
विधानसभा चुनाव में ग्यारह हजार वोट पाने वाली भाजपा आखिर निकाय चुनाव में पांच हजार पर क्यों सिमट जाती है

कोंच (पीडी रिछारिया) पिछले साढ़े तीन दशक से अपना खोया वजूद तलाश रही भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनों से निपटने की है जो ऐन चुनाव के वक्त भितरघात करके अपनों की ही नाव डुबोने में लगे हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दंभ भरने और सत्ता दल के नाते जीत को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने वाली भाजपा निकाय चुनाव में बैकफुट पर नजर आती है जिसका ताजा तरीन प्रमाण तो यही है कि विधानसभा चुनाव में जिस नगरीय क्षेत्र में उसे ग्यारह हजार से अधिक वोट मिले वह निकाय चुनाव में पांच हजार पर सिमट गई।
नगरीय निकाय चुनाव 2023 की प्रक्रिया जारी है और सभी दलीय एवं निर्दल प्रत्याशी चुनाव का रुख अपनी तरफ मोड़ने का जीतोड़ प्रयास भी करेंगे लेकिन इन सबके बीच यह चुनाव सत्ताधारी भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती होंगे क्योंकि पिछले साढ़े तीन दशक से वह पालिकाध्यक्ष पद हथियाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करने के बाद भी अपनी कोशिशों को मूर्त रूप दे पाने में विफल होती आ रही है। यहां सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न तो यही है कि देश और प्रदेश की सत्ता पर काबिज दुनिया की यह सबसे बड़ी पार्टी विधानसभा चुनाव में में तो ग्यारह हजार से अधिक वोट पाकर खुद की पीठ ठोंकने का काम कर लेती है लेकिन नगरीय निकाय चुनाव में यह पांच हजार वोट पर आकर सिमट जाती है। निश्चित रूप से यह स्थिति भाजपा के लिए हर चुनाव में असहज करने वाली होती है लेकिन इसका कोई तोड़ अब तक भाजपा खोज नहीं पाई है।
दरअसल, भाजपा जैसी ‘संस्कारित’ पार्टी में टिकिट के दावेदारों की लंबी फेहरिस्त हर दफा होती है जिसमें तमाम तो पार्टी की विचारधारा में बचपन से ही रचे पगे होते हैं जबकि एक जमात आयातित होती है जो सामयिक तौर पर सत्ता सुख के लालच में अन्य दलों से आते हैं। इन दावेदारों में टिकिट तो किसी एक का ही होता है और इस स्थिति में बाकियों में कुछ शांत होकर घर बैठ जाते हैं और कई बगावत का झंडा बुलंद कर चुनाव मैदान में आकर पार्टी उम्मीदवार के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाले होते हैं। जिन्हें टिकिट नहीं मिलता उनमें से अधिकांश भितरघात करने पर भी आमादा हो जाते हैं और प्रत्याशी की पराजय का रास्ता साफ हो जाता है। पार्टी को बाकई अगर अपना खोया वजूद तलाशना है तो पार्टी के ‘गद्दारों’ का इतिहास खंगालकर उनके खिलाफ सख्त कदम उठाने ही होंगे क्योंकि यह भी सही है कि बिना कड़वी दवाई के बीमारी ठीक नहीं होती है।