पढ़ाई के साथ साथ पेट भरना भी तो जरूरी है, इसलिए कबाड़ बीनना हमारी मजबूरी

कोंच (पी.डी. रिछारिया)। लॉकडाउन के पहले जिन हाथों में पेंसिल, कागज और कलम हुआ करती थी आज उन हाथों में कबाड़ बीनने के लिए बोरी है। गरीबी होती ही ऐसी है जो कुछ भी करवा सकती है और इससे जूझ रहे परिवारों के बच्चे वह सब कुछ करने के लिए मजबूर हैं जो कम से कम पढने लिखने की उम्र में नहीं करने चाहिए। राज और सौरभ ऐसे ही गरीब घरों के बच्चे हैं जिन्हें फिलहाल पेट की आग शांत करने और दो वक्त की रोटी में लिए गर्मी, जाड़े और बारिश में अपने घरों से निकल कर कूड़ों के ढेरों में जिंदगी तलाशनी पड़ रही है। न केवल इन बच्चों बल्कि इनके परिवारों के अन्य लोगों को सड़कों के किनारे पूरा दिन गुजार कर कूड़े से अपने मतलब का कबाड़ निकालना होता है तब कहीं शाम को इनके घरों का चूल्हा जलता है। लॉकडाउन में बंद पड़े रोजगार गरीबों के लिए कोढ में खाज बन गए हैं और दो वक्त के निबालों के लिए ये संघर्ष कर रहे हैं।